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सुनीलजी – सादगी भरी जीवन धारा

janhitmission.com, January 13, 2024

सुनीलजी के नाम से विख्यात स्वर्गीय सुनील गुप्ता का 55 वर्ष की उम्र मे पिछली अप्रैल को निधन हो गया।जेएनयू दिल्ली मे अर्थशास्त्र के छात्र रहे सुनीलजी ने होशंगाबाद के आदिवासी बहुल केसला ब्लाक के छोटे से गांव को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। जब उन्होने दिल्ली के एम्स मे अंतिम सांस ली तब पूरा देश और प्रदेश लोकसभा निर्वाचन की आग मे तप रहा था। मीडिया के लिए यह कमाई का मौसम होता है,ऐसे मे सुनीलजी भला किसे याद रहते !फिर भी इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ने ना सिर्फ बडी खबर बल्कि योगेन्द्र यादव और राजकिशोर जी के विशेष लेख प्रकाशित कर उन्हे याद किया। ।उनके कार्यों से लोगों को परिचित कराने का दायित्व सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश के अखबारों का था क्योंकि बरसों बरस से उनकी कर्मभूमि रहा ठेठ आदिवासी गांव केसला यहीं है।अब मध्यप्रदेश के अखबारों से पत्रकारिता तो करीब करीब गायब हो चुकी है और मीडिया याने बाजार ही बचा है सो उन्होने एक छोटी सी खबर छाप कर अपने पत्रकारिता दायित्व का निर्वहन कर लिया।हम उनका पुण्य स्मरण करते हुए विख्यात विचारक राजकिशोर जी का लेख जनसत्ता से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। एक सन्यासी समाजवादी का जाना समाजवादी आंदोलन के इन परिशिष्ट वर्षों मे मै दो व्यक्तियों की खास इज्जत करता हूं।सच्चिदानंद सिन्हा मुजफ्रफरपुर मे रहते हैं और देश व दुनिया की घटनाओं पर लगातार सोच-विचार करते हैं। जनसत्ता या सामयिक वार्ता,कहीं भी उनकी नई टिप्पणी प्रकाशित होती है,तो हम किसी नए सत्य की तलाश मे बडे चाव से उसे पढते हैं।शायद ही कभी निराशा हुई हो ।सुनील होशंगाबाद की केसला तहसील के एक गांव मे रहते थे।उनकी उम्र मुझसे कम थी,पर मेघा मुझसे कई गुना ज्यादा ।दिमाग मे खून बहने से वे कई दिन बेहोशी मे रहे और अंत मे दिल्ली के एम्स मे मृत्यु ने उन्हे दबोच लिया। हमारे जीवन के दुख और शोक मे एक और परत आ जुडी ं साथी सुनील की सब से बडी खूबी यह नहीं थी कि वे समाजवादी थे।आजकल अपने को समाजवादी कहने से न कोई पत्ता खडकता है,न किसी की पेशानी पर बल पडते हैं।सुनील का सबसे बडा आकर्षण यह था कि मध्य वर्ग मे जन्म होने और जवाहरलाल नेहरू विवि से उच्च शिक्षा पाने के बाद भी वे एक युवा सन्यासी की तरह रहते थे।जवाहरलाल नेहरू विवि मे उन्होने अर्थशास्त्र मे सबसे ज्यादा अंक प्राप्त किए थे।वहां की छा़त्र राजनीति मे उन जैसी लोकप्रियता कइयों को मिली ,पर जेएनयू का गांधी सुनील को ही कहा गया। वहीं से सुनील और उनके साथियों ने ‘समता एरा’ नाम से पत्रिका निकाली थी। लोग गांव से शहर आते हैं,सुनील शहर से गांव गए।शहर भी ऐसा,जो मुगलकाल से ही भारत की राजधानी रहा है। हमारे बहुमुखी समय मे कुछ प्रसिद्धों ने ऐसा निर्णय एक सात्विक नौटंकी के स्तर पर किया है,सुनील के लिए यह उनकी वैचारिक दिशा और भावनात्मक उंचाइ्र्र्र्र्र का अनिवार्य निष्कर्ष था।सुनील का मिजाज किसी से कम शहराती नहीं था,फिर भी उन्होने युवावस्था मे ही तय कर लिया था कि स्वच्छ राजनीति करनी हो तो किसी गांव मे जा कर रहना ही श्रेयस्कर है। शहर व्यर्थ के लालच पैदा करता है और अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है।महानगर हो तो और भी कई तरह की फिसलनों के लिए यह जरखेज जमीन है। परन्तु मामला सिर्फ यही नहीं है। आप कम्युनिस्ट हों या सोशलिस्ट,राजनीति करने के लिए पैसा चाहिए। राजनीति खुद पैसा नहीं देती ,दिलवा जरूर सकती है।सुनील ने राजनीति की शुरूआत दिल्ली से ही की थी ,पर वे किसी के आगे भिक्षुक नहीं बनना चाहते थे। दिल्ली मे भिक्षा भी सौ-दो सौ रूपयों की नहीं होती ,लाखों या कम से कम हजारों की होती है।सुनील ने यह भी देखा की बडे शहरो मे आदर्शवाद के लिए कोई जगह नहीं रही। यहां आदर्श की बातें सिर्फ यथार्थवाद को को मजबूत बनाने के लिए की जाती हैं। इसलिए उन्होने गांव का रास्ता पकडा। वे अखिल भारतीय होने के पहले किसी गांव का होना चाहते थे और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनना चाहते थे।गांव मे उन्होने अपनी राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने के लिए कई तरह के काम किए और स्थानीय लोगों से करवाए। लोग छोटे उद्योगों की बात करते हैं, सुनील ने यह करके दिखाया कि उनका निर्माण कैसे किया जा सकता है-पूंजी के नहीं ,श्रम के बल पर। उनकी सादगी,वैचारिक क्षमता और राजनीतिक सक्रियता से उन्हे इतनी ख्याति मिली के अंगरेजी साप्ताहिक ’द वीक ‘ने एक साल ‘मैन आफ द इयर‘ का सम्मान दिया। जो लोग बडे मन से परिवर्तन की राजनीति कर रहे हैं या करना चाहते ह,ैं उन्हे सुनील माडल का विस्तार से अध्ययन करना चाहिए। रोशनी मिलना तय है। राजनीति करने के लिए पत्र या पत्रिका की जरूरत होेती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों मे ही इस तथ्य को पहचान लिया गया था। राममनोहर लोहिया हिन्दी मे जन और अंगरेजी मे मैनकाइंड निकालते थे। सुनील,लिंगराज,योगेन्द्र यादव,प्रेमसिंह आदि के राजनीतिक गुरू किशन पटनायक ने, जिन्हे मै आधुनिक सुकरात का दर्जा देता हूं ‘ सामयिक वार्ता ‘ निकाली। अपने अच्छे दिनों मे यह मासिक पत्रिका प्रबुद्ध चर्चा का विषय हुआ करती थी। मेने आकलन के अनुसार , ‘ सामयिक वार्ता ‘ मे जितने मौलिक विचार प्रकाशित हुए ,उनकी संख्या सत्तर के बाद प्रकाशित सभी अन्य पत्रिकाओं मे छपे मौलिक लेखों से कहीं ज्यादा है।मुक्षे तो ‘ सामयिक वार्ता ‘ के हर अंक ने वैचारिक खुराक प्रदान की।किशन पटनायक की मौत के बाद वार्ता के संपादन और प्रकाशन का भार सुनील क ही कंधे पर आया। पहले रमेशचन्द्र सिंह और अशोक सेकसरिया ने और बादमे प्रेमसिंह, हरिमोहन,राजेन्द्र राजन,योगेन्द्र,महेश आदि ने कई तरह से वार्ता का साथ दिया,पर अंतिम दिनों मे इस सलीब को ढोने की जिम्मेदारी अकेले सुनील भाई पर आ पडी थी। समाजवादी राजनीति और सामयिक वार्ता के प्रति सुनील की प्रतिबद्धता इतनी गहरी थी कि समाजवादी जन परिषद को बाकियों ने भी अंगरेजी के मुहावरे मे कहूं तो नए चरागाह की तलाश मे छोड दिया होता और सामयिक वार्ता के सहयोगियांे की संख्या दस से नीचे आ गई होती,तब भी वे परिषद को चलाते रहते और भले ही तीन महीनों मे एक बार,वार्ता को यप्रकाशित करते रहते।उनके जीवन से मै यही शिक्षा लेता हूं कि अकेले पड जाने से कभी डरना नहीं चाहिए। सुनील का व्यक्तिगत खर्च उससे थोडा सा ही ज्यादा था जो भारतीयों की औसत आय है।यह जीवन पद्धति उन्होने इसलिए अपनाई थी कि वर्तमान समय मे इससे अधिक की चाह नैतिक दुराचरण है। किशन पटनायक की तरह सुनीलजी को भी मैने कभी हताश या निराश नहीं देखा।अब हमारा कर्तव्य क्या है ?समाजवादी राजनीति की विरासत को बचाए रखने या आगे बढाने की कामना चींटियों की मदद से राम सेतु तैयार करने की इच्छा है। पर हमारी संख्या कितनी भी कम रह गई हो, हममे इतनी क्षमता तो है ही कि हम सामयिक वार्ता को इतिहास न होने दें।जब राजनीति नहीं हो पा रही हो,पत्रिकाओं के माध्यम से कुछ नेक विचार फैलाना एक अपरिहार्य कर्तव्य है,ताकि वे विचार समाज में बचे रहें और जब किसी मे कुछ करने की चाह पैदा हो ,तब उसे इतिहास को ज्यादा खंगालना न पडे।

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