सुनीलजी के नाम से विख्यात स्वर्गीय सुनील गुप्ता का 55 वर्ष की उम्र मे पिछली अप्रैल को निधन हो गया।जेएनयू दिल्ली मे अर्थशास्त्र के छात्र रहे सुनीलजी ने होशंगाबाद के आदिवासी बहुल केसला ब्लाक के छोटे से गांव को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। जब उन्होने दिल्ली के एम्स मे अंतिम सांस ली तब पूरा देश और प्रदेश लोकसभा निर्वाचन की आग मे तप रहा था। मीडिया के लिए यह कमाई का मौसम होता है,ऐसे मे सुनीलजी भला किसे याद रहते !फिर भी इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ने ना सिर्फ बडी खबर बल्कि योगेन्द्र यादव और राजकिशोर जी के विशेष लेख प्रकाशित कर उन्हे याद किया। ।उनके कार्यों से लोगों को परिचित कराने का दायित्व सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश के अखबारों का था क्योंकि बरसों बरस से उनकी कर्मभूमि रहा ठेठ आदिवासी गांव केसला यहीं है।अब मध्यप्रदेश के अखबारों से पत्रकारिता तो करीब करीब गायब हो चुकी है और मीडिया याने बाजार ही बचा है सो उन्होने एक छोटी सी खबर छाप कर अपने पत्रकारिता दायित्व का निर्वहन कर लिया।हम उनका पुण्य स्मरण करते हुए विख्यात विचारक राजकिशोर जी का लेख जनसत्ता से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। एक सन्यासी समाजवादी का जाना समाजवादी आंदोलन के इन परिशिष्ट वर्षों मे मै दो व्यक्तियों की खास इज्जत करता हूं।सच्चिदानंद सिन्हा मुजफ्रफरपुर मे रहते हैं और देश व दुनिया की घटनाओं पर लगातार सोच-विचार करते हैं। जनसत्ता या सामयिक वार्ता,कहीं भी उनकी नई टिप्पणी प्रकाशित होती है,तो हम किसी नए सत्य की तलाश मे बडे चाव से उसे पढते हैं।शायद ही कभी निराशा हुई हो ।सुनील होशंगाबाद की केसला तहसील के एक गांव मे रहते थे।उनकी उम्र मुझसे कम थी,पर मेघा मुझसे कई गुना ज्यादा ।दिमाग मे खून बहने से वे कई दिन बेहोशी मे रहे और अंत मे दिल्ली के एम्स मे मृत्यु ने उन्हे दबोच लिया। हमारे जीवन के दुख और शोक मे एक और परत आ जुडी ं साथी सुनील की सब से बडी खूबी यह नहीं थी कि वे समाजवादी थे।आजकल अपने को समाजवादी कहने से न कोई पत्ता खडकता है,न किसी की पेशानी पर बल पडते हैं।सुनील का सबसे बडा आकर्षण यह था कि मध्य वर्ग मे जन्म होने और जवाहरलाल नेहरू विवि से उच्च शिक्षा पाने के बाद भी वे एक युवा सन्यासी की तरह रहते थे।जवाहरलाल नेहरू विवि मे उन्होने अर्थशास्त्र मे सबसे ज्यादा अंक प्राप्त किए थे।वहां की छा़त्र राजनीति मे उन जैसी लोकप्रियता कइयों को मिली ,पर जेएनयू का गांधी सुनील को ही कहा गया। वहीं से सुनील और उनके साथियों ने ‘समता एरा’ नाम से पत्रिका निकाली थी। लोग गांव से शहर आते हैं,सुनील शहर से गांव गए।शहर भी ऐसा,जो मुगलकाल से ही भारत की राजधानी रहा है। हमारे बहुमुखी समय मे कुछ प्रसिद्धों ने ऐसा निर्णय एक सात्विक नौटंकी के स्तर पर किया है,सुनील के लिए यह उनकी वैचारिक दिशा और भावनात्मक उंचाइ्र्र्र्र्र का अनिवार्य निष्कर्ष था।सुनील का मिजाज किसी से कम शहराती नहीं था,फिर भी उन्होने युवावस्था मे ही तय कर लिया था कि स्वच्छ राजनीति करनी हो तो किसी गांव मे जा कर रहना ही श्रेयस्कर है। शहर व्यर्थ के लालच पैदा करता है और अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है।महानगर हो तो और भी कई तरह की फिसलनों के लिए यह जरखेज जमीन है। परन्तु मामला सिर्फ यही नहीं है। आप कम्युनिस्ट हों या सोशलिस्ट,राजनीति करने के लिए पैसा चाहिए। राजनीति खुद पैसा नहीं देती ,दिलवा जरूर सकती है।सुनील ने राजनीति की शुरूआत दिल्ली से ही की थी ,पर वे किसी के आगे भिक्षुक नहीं बनना चाहते थे। दिल्ली मे भिक्षा भी सौ-दो सौ रूपयों की नहीं होती ,लाखों या कम से कम हजारों की होती है।सुनील ने यह भी देखा की बडे शहरो मे आदर्शवाद के लिए कोई जगह नहीं रही। यहां आदर्श की बातें सिर्फ यथार्थवाद को को मजबूत बनाने के लिए की जाती हैं। इसलिए उन्होने गांव का रास्ता पकडा। वे अखिल भारतीय होने के पहले किसी गांव का होना चाहते थे और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनना चाहते थे।गांव मे उन्होने अपनी राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने के लिए कई तरह के काम किए और स्थानीय लोगों से करवाए। लोग छोटे उद्योगों की बात करते हैं, सुनील ने यह करके दिखाया कि उनका निर्माण कैसे किया जा सकता है-पूंजी के नहीं ,श्रम के बल पर। उनकी सादगी,वैचारिक क्षमता और राजनीतिक सक्रियता से उन्हे इतनी ख्याति मिली के अंगरेजी साप्ताहिक ’द वीक ‘ने एक साल ‘मैन आफ द इयर‘ का सम्मान दिया। जो लोग बडे मन से परिवर्तन की राजनीति कर रहे हैं या करना चाहते ह,ैं उन्हे सुनील माडल का विस्तार से अध्ययन करना चाहिए। रोशनी मिलना तय है। राजनीति करने के लिए पत्र या पत्रिका की जरूरत होेती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों मे ही इस तथ्य को पहचान लिया गया था। राममनोहर लोहिया हिन्दी मे जन और अंगरेजी मे मैनकाइंड निकालते थे। सुनील,लिंगराज,योगेन्द्र यादव,प्रेमसिंह आदि के राजनीतिक गुरू किशन पटनायक ने, जिन्हे मै आधुनिक सुकरात का दर्जा देता हूं ‘ सामयिक वार्ता ‘ निकाली। अपने अच्छे दिनों मे यह मासिक पत्रिका प्रबुद्ध चर्चा का विषय हुआ करती थी। मेने आकलन के अनुसार , ‘ सामयिक वार्ता ‘ मे जितने मौलिक विचार प्रकाशित हुए ,उनकी संख्या सत्तर के बाद प्रकाशित सभी अन्य पत्रिकाओं मे छपे मौलिक लेखों से कहीं ज्यादा है।मुक्षे तो ‘ सामयिक वार्ता ‘ के हर अंक ने वैचारिक खुराक प्रदान की।किशन पटनायक की मौत के बाद वार्ता के संपादन और प्रकाशन का भार सुनील क ही कंधे पर आया। पहले रमेशचन्द्र सिंह और अशोक सेकसरिया ने और बादमे प्रेमसिंह, हरिमोहन,राजेन्द्र राजन,योगेन्द्र,महेश आदि ने कई तरह से वार्ता का साथ दिया,पर अंतिम दिनों मे इस सलीब को ढोने की जिम्मेदारी अकेले सुनील भाई पर आ पडी थी। समाजवादी राजनीति और सामयिक वार्ता के प्रति सुनील की प्रतिबद्धता इतनी गहरी थी कि समाजवादी जन परिषद को बाकियों ने भी अंगरेजी के मुहावरे मे कहूं तो नए चरागाह की तलाश मे छोड दिया होता और सामयिक वार्ता के सहयोगियांे की संख्या दस से नीचे आ गई होती,तब भी वे परिषद को चलाते रहते और भले ही तीन महीनों मे एक बार,वार्ता को यप्रकाशित करते रहते।उनके जीवन से मै यही शिक्षा लेता हूं कि अकेले पड जाने से कभी डरना नहीं चाहिए। सुनील का व्यक्तिगत खर्च उससे थोडा सा ही ज्यादा था जो भारतीयों की औसत आय है।यह जीवन पद्धति उन्होने इसलिए अपनाई थी कि वर्तमान समय मे इससे अधिक की चाह नैतिक दुराचरण है। किशन पटनायक की तरह सुनीलजी को भी मैने कभी हताश या निराश नहीं देखा।अब हमारा कर्तव्य क्या है ?समाजवादी राजनीति की विरासत को बचाए रखने या आगे बढाने की कामना चींटियों की मदद से राम सेतु तैयार करने की इच्छा है। पर हमारी संख्या कितनी भी कम रह गई हो, हममे इतनी क्षमता तो है ही कि हम सामयिक वार्ता को इतिहास न होने दें।जब राजनीति नहीं हो पा रही हो,पत्रिकाओं के माध्यम से कुछ नेक विचार फैलाना एक अपरिहार्य कर्तव्य है,ताकि वे विचार समाज में बचे रहें और जब किसी मे कुछ करने की चाह पैदा हो ,तब उसे इतिहास को ज्यादा खंगालना न पडे।
मैंने जब पत्रकारिता मे प्रवेश किया तब स्वर्गीय जोशीजी इन्फा नामक संवाद एजेंसी के भोपाल प्रतिनिधि थे। स्वर्गीय दुर्गादास की एजेंसी की राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी प्रतिषठा थी। तब नईदुनिया की धाक तेजी से जम रही थी और वह इन्फा के हवाले से जोशीजी का लेख हर हफ्ते छापता था। लेख के शीर्षक के नीचे उनका नाम यूँ छपता था-इन्फा के प्रादेशिक प्रतिनिधि मदनमोहन जोशी द्वारा। सबको लेख का बेसब्री से इंतजार रहता था। जब नईदुनिया का जलवा और बढ़ा और उसे भोपाल मे दमदार विशेष प्रतिनिधि की जरूरत महसूस हुई,तब जोशीजी विधिवत समूह का हिस्सा बन गए। इतने वरिषठ होते हुए भी विनोदी स्वभाव उन्हे बेहद सहज बना देता था।पुलिस अफसरों के साथ पत्रकारों की पार्टियों मे वे अपने अनुभवों को किस्सागोई अंदाज और मज़ाकिया लहजे मे कुछ ऐसे पेश करते थे जिससे महफिल ठहाकों से सराबोर हो जाती थी। सब उन्हें पसंद करते थे। मध्यप्रदेश की राजनीति और पत्रकारिता की तो वे डिक्शनरी जैसे थे।इसलिए मुख्यमंत्री हो, मंत्री हो,या विरोधो दल का नेता सब उनका सम्मान करते थे। जब मैं सीधी मे पदस्थ था तब का किस्सा है।तब के मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह एक बार जोशीजी को साथ लाए और एक आयोजन मे साथ लेकर पहुंचे। वहाँ जब कुछ अव्यवस्था और शोरगुल नजर आया तब अर्जुनसिंह माइक हाथ मे लेकर नाराजगी से बोले मैं इतने बड़े पत्रकार को लेकर आया हूँ उनके मन पर यहाँ की अफरा-तफरी का क्या प्रभाव पड़ेगा.? ऐसे मे मुझे आगे से किसी को सीधी लेकर आने मे शर्म आएगी।ऐसा था जोशीजी का रुतबा । भोपाल का जवाहरलाल नेहरू कैंसर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र उनके पुरूषार्थ की जीती जागती मिसाल है। इतनी बड़ी संस्था को अकेले अपने दम पर खड़ा करना उनके ही बस की बात थी। निश्चय ही इसमे उनकी प्रबल इच्छा शक्ति,पत्रकारिता से बने सम्बन्धों और सहज स्वभाव का बड़ा योगदान था जिसने समर्थ लोगों को सहयोग के लिए प्रेरित किया। केवल अपने और अफ्नो के लिए जीने वालों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।
खूब कसीदे गढ़े जा रहे हैं बुच सर की शान मे..! उनकी ईमानदारी, सख्तमिजाजी, दूरदर्शिता और पेशेवर गुणों का खूब बखान किया जा रहा है। इनमे उनके साथी और प्रसंशक तो हैं ही, सत्ता पर काबिज और सत्ता मे रह चुके नेता भी पीछे नहीं हैं। ये वही नेता हैं,सत्ता मे रहते जिनकी भ्रष्ट ,निकम्मी और दरबारी शैली बुच साहब को आठ साल पहले ही आईएएस की नौकरी छोड़ने पर विवश कर देती है। लोकतंत्र के इस भ्रष्ट सिस्टम की वजह से उनके सरीखे ईमानदार, संजीदा और मानवीय गुणों से ओतप्रोत एमपी के ही आईएएस अफसर हर्षमंदर और अजय यादव तो और पहले इस चिकनी-चुपड़ी नौकरी से पीछा छुड़ा चुके हैं। हर्ष मंदर राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं और उनकी अंगरेजी किताब-लुकिंग अवे-चर्चा मे है। अजय यादव का निधन उनके चाहने वालों को झकझोर गया। उन्होने भी एक किताब लिखी है जो आईएएस रंगरूटों को जरूर पढ़ना चाहिए। मुझे याद आ रही है विदिशा और बैतूल मे मेरे कलेक्टर रहे एएन अस्थाना की टिप्पणी जो छह महीनों मे अचानक तबादला होने पर उन्होने की थी। तब वे बोले कि कलेक्टरों का कम समय मे तबादला करने की सरकार की नीति अच्छी ही है क्योंकि लंबा कार्यकाल होने पर या तो वो गंजा हो जायगा या सारे बाल सफ़ेद हो जाएँगे। प्रशासन मे नेताओं की बढ़ती दखलंदाज़ी पर इससे सटीक बयान और क्या हो सकता है।यह तीन दशक पहले की बात है, अब तो हालात बेहद डरावने हो गए हैं। बुच साहब के साथ सत्ताधीशों का बर्ताव कैसा था..? दिल्ली मे वहीं के एक बड़े पत्रकार का मकान बन रहा था जिसके लिए लिए लकड़ी की जरूरत थी। वे दिल्ली सूचना केंद्र मे पदस्थ जनसंपर्क विभाग के वरिष्ठ अधिकारी को अपना मकान दिखाने ले गए और मध्यप्रदेश की बेशकीमती सागौन की फरमाइश कर डाली, साथ मे कीमत देने की बात कही जो औपचारिकता भर थी। तब के मुख्यमंत्री के इन अधिकारी को निर्देश थे की पत्रकारों से संबंधित इस प्रकार की जानकारी उन्हे जरूर दी जाए। पत्रकार की फरमाइश पर उन्होने उक्त अफसर को तब के फॉरेस्ट सेक्रेटरी बुच साहब से बात कर फोकट मे लकड़ी का इंतजाम करने को कहा। इस पर पीआरओ साहब ने बुच साहब को पत्रकार की मांग और मुख्यमंत्री की भावनाओं से अवगत कराया। बुच साहब ने साफ इंकार करते हुए कहा की उन पत्रकार को बताओ की दिल्ली मे एमपी का वन डिपो है जहां लकड़ी की नीलामी होती है। वे नीलामी मे भाग लें और मनचाही लकड़ी खरीद लें। अगली बार दिल्ली आने पर मुख्यमंत्री के पूछने पर पीआरओ साहब ने बुच साहब के जवाब के बारे मे बताया। मुख्यमंत्री ने अपने आसपाल प्रभामंडल तो समाजवादी होने का बना रखा था पर थे राजसी तबीयत के राजनेता। यह हुक्मउदुली उन्हे बर्दाश्त नहीं हुई जिसकी परिणिति बुच साहब के तत्काल तबादले मे हुई। उन्हे बगैर कोई काम दिए वल्लभ भवन मे बैठा दिया गया। नियम कानून से चलने पर मिली प्रताड़ना से आहत होकर ही शायद बुच साहब ने आठ साल पहले आईएएस जैसी रुतबे वाली नौकरी छोड़ दी। उन्हे अहसास हो गया होगा की आगे इससे भी बदतर हालात आएंगे। उनका आंकलन कितना सच था यह उन्होने अपने जीते जी देख ही लिया था…! बैतूल से उन्होने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा जो सिस्टम से प्रतीकात्मक लड़ाई ज्यादा थी फिर भी उन्हे खासे वोट मिले। वहाँ उनकी लोकप्रियता का अंदाजा मुझे तब हुआ जब मेरी वहाँ पोस्टिंग हुई। बैतूल के दूरदराज़ मे कुकरू खामला नामक गाँव मे एक स्पाट है जहां से कुदरती हरियाली के नयनाभिराम नजारे देखे जा सकते हैं। इस स्पाट की खोज बुच साहब ने कलेक्टरी के दौरान की थी इसलिए इसे बुच पाइंट के नाम से जाना जाता है। आदिवासियों मे वे बुच बाबा के नाम से जाने जाते थे।
योग को दुनिया भर मे फैलाने मे महेश योगी के चेलों बीटल्स, इमरजेंसी काल के धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, बाबा रामदेव और अब प्रधानमंत्री मोदी के योगदान की खूब चर्चा होती है। दैनिक भास्कर की एक खबर ने योग की शिक्षा मे मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र के अनमोल योगदान को रेखांकित किया है। अखबार ने सागर विवि के योग शिक्षा विभाग के पहले मुखिया 86 वर्षीय कालिदास जोशी से बातचीत छापी है। इसके मुताबिक सागर विवि के दूसरे कुलपति आरपी त्रिपाठी की पहल पर एक योगी ने वहाँ योग की गतिविधियां प्रारम्भ की। योगीजी जल्द ही विवि छोड़ गए और त्रिपाठी जी भी कुलपति पद से हट गए। बाद मे पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मिश्र कुलपति बने और उन्होने योग की गतिविधियां फिर प्रारम्भ करने की पहल की। इस पर लोनावला के योग गुरु कुवलयानन्द से संपर्क किया गया जिन्होने कालिदास जोशी का नाम सुझाया जो तब पुणे के कॉलेज मे वैज्ञानिक थे। उनका परिवार सरकारी नौकरी छोड़ कर ऐसी जगह जाने के खिलाफ था जहां न कोई विभाग था और न कोई पद। इस पर कुलपति पंडित मिश्र ने अगस्त,1959 मे सागर विवि मे योग विभाग खुलवाया और जोशीजी को उसमे असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त कर दिया। कालिदास जोशी के अनुसार उनके 30 साल के कार्यकाल मे तीन हजार से ज्यादा छात्रों ने योग पर पीजी डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स किए और छह छात्रों ने पीएचडी भी की। यहाँ उल्लेख करना मौजू होगा की स्वर्गीय पुरुषोत्तमदास टंडन को लेकर पंडित मिश्र सीधे प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से भिड़ गए थे जिसके परिणामस्वरूप उन्हे राजनीतिक वनवास लेना पड़ा था। उनका कुलपति का कार्यकाल वही दौर था। बाद मे 1962 के चुनाव मे काँग्रेस को मध्यप्रदेश विधानसभा मे बहुमत नहीं मिला और नेहरू जी के प्रिय काटजू मुख्यमंत्री रहते चुनाव हार गए। जैसे तैसे काँग्रेस की सरकार तो बन गई पर देशलहरा और तख्तमल जी की गुटबाजी से पार्टी को उबारने के लिए इन्दिरा गांधी की पहल पर पंडित मिश्र का पुनर्वास हुआ और वे मुख्यमंत्री बने। राजनीति के चाणक्य और सख्त प्रशासन के लिए लौह पुरुष कहलाने वाले पंडित मिश्र ने 1967 के आम चुनाव मे मध्यप्रदेश मे काँग्रेस को बहुमत दिला कर इतिहास रच दिया।काँग्रेस विभाजन के समय वे इंदिराजी के सलाहकार थे। महाकाव्य क्रष्णायन के रचयिता मिश्रजी ने काँग्रेस विभाजन पर प्रामाणिक किताब लिविंग एन एरा भी लिखी जो तब खूब चर्चाओं मे रही थी।उन्होने उर्दू शेरों का हिन्दी मे अनुवाद कर अदभुत प्रयोग किया। उनके हिन्दी शेरों पर अनूदिता शीर्षक से किताब भी प्रकाशित हुई थी।
स्वर्गीय श्रीमती मधु मिश्र इस समय ऊपर जहां भी होंगी अपनी पोती अवनि की चमकदार उपलब्धि को सेलेब्रेट कर रहीं होंगी । सवा सौ करोड़ के भारत मे प्रतियोगी परीक्षा मे पूरे देश मे अव्वल आना कोई ऐसी वैसी कामयाबी नहीं है जिसे अनदेखा किया जा सके। विनय और प्रीति मिश्र की बेटी ने न सिर्फ भोपाल बल्कि समूचे मध्यप्रदेश को गौरवान्वित किया है। यह पूरा परिवार शिक्षा को समर्पित है। मिश्रा मैडम और उनके पति सुरेश मिश्र दोनों प्रोफेसर रहे हैं। अब उनके काबिल पुत्र विवेक और विनय तथा उनकी होनहार पत्नियाँ अर्चना और प्रीति भी प्रोफेसर हैं। मधु मिश्र मैडम बेहद जीवट की महिला थीं और परिवार से संबन्धित सारी जिम्मेदारियों के लिए खुद भागदौड़ किया करती थीं। पारिवारिक दायित्वों से मानो पति सुरेशजी को उन्होने मुक्त कर रखा था। एक जटिल व्याधि का उन्होने जिस साहस और जिजीविषा से सामना किया वह बेमिसाल और अनुकरणीय है । निश्चय ही अवनि को इस उपलब्धि के लिए माँ और पिता ने तराशा है। इस कामयाबी मे उन संस्कारों,मूल्यों और आदर्शों का योगदान भी कम नहीं है जो मधु मैडम और अभी भी सक्रिय सुरेशजी ने अपने परिवार को दिए। ।[फोटो भास्कर से साभार]
लक्ष्मी अग्रवाल तब कुल पंद्रह बरस की थी और सातवें स्टैंडर्ड मे पढ़ रही थी जब मानसिक तौर से बीमार वहशी दरिंदे ने तेजाब से उनके चेहरे को झुलसा दिया पर वह जीने की जिजीविषा और जज्बे को नहीं झुलसा पाया। इसी का प्रतिफल हैं कि लक्ष्मी आज सात महीने की बेटी पीहू की माँ है।तेजाबी हमले की त्रासदी से उबरते ही लक्ष्मी समन्वयक के बतौर तेजाब के खिलाफ अभियान से जुड़ गई। इसी दौरान उसकी मुलाक़ात तेजाबी हमलों और इसकी बिक्री के खिलाफ मुहिम मे जुटे एक्टिविस्ट आलोक दीक्षित से हुई।दोनों मे प्यार हुआ और उन्होने बिना शादी के ताउम्र साथ रहने का फैसला किया। दोनों नहीं चाहते थे कि लोग शादी के समारोह मे आकर लक्ष्मी के चेहरे पर प्रतिक्रिया दें।दैनिक भास्कर ने लक्ष्मी और पीहू पर सचित्र खबर छापी है। ऐसा ही जज्बा और हौसला दिखाया है तेजाब से झुलसीं 23 साल की नीतू और उसके साथ झुलसी 45 साल की माँ गीता , 22 साल की रूपा और 20 बरस की रितु ने जो आगरा मे ताजमहल के करीब शीरोज हैंगआउट नाम से कैफे चलाती हैं।इसका हिन्दी मे शाब्दिक अर्थ है -प्रेरणादायक महिलाओं का अड्डा। मेन्यू मे व्यंजनो के नाम तो हैं पर कीमत नहीं लिखी है । इसकी जगह लिखा है कि आप मर्जी के मुताबिक भुगतान कर सकते हैं। इंडिया टुडे मे छपी इनकी दास्तान के मुताबिक आगरा के गरीब परिवार की गीता और उनकी दो मासूम बेटियों पर गीता के पति ने ही 1995 मे तेजाब फेंका था। एक बेटी तो जाती रही पर चेहरा झुलस जाने से नीतू की हालत मौत से भी बदतर हो गई।फ़रीदाबाद की रूपा पर सौतेली माँ ने तेजाब फेंका था और पिता ने माँ का साथ दिया पर चाचा और ताऊ ने इलाज करवाया। रोहतक की रहने वाली राज्य स्तर की वालीवाल खिलाड़ी रितु पर 2012 को बुआ के ही लड़के ने तेजाब फेंक दिया था। इन जाँबाजों द्वारा चलाए जा रहे कैफे को एक स्वयंसेवी संस्था ने स्टॉप एसिड अटैक अभियान के तहत शुरू किया।इसकी दीवारें महिला सशक्तिकरण की कहानी बयान करती लगती हैं। दीवारों पर रंग–बिरंगी रेखाओं के जरिए अत्याचारों पर विजय पाती महिलाओं के चित्र उकेरे गए हैं।कैफे के कोने मे रूपा का बुटीक भी है।एक और तेजाब पीड़ित चंचल भी इनसे जुड़ गई है। आगरा जाने पर ताजमहल के साथ यहाँ भी जरूर जाएँ जिससे आप को भी कुछ ऐसा ही करने की प्रेरणा मिलेगी।
भोपाल मे 28,29 और 30 नवंबर को आयोजित 68वां आलमी तब्लीगी इज़्तिमा हर लिहाज से कुशल प्रबंधन की शानदार मिसाल बन गया। चाहे भीड़ का अनुशासन हो, ट्रेफिक कंट्रोल हो, साफ-सफाई का बंदोबस्त हो या पेयजल और परिवहन का इंतजाम हो, सभी जिम्मेदारों ने पूरी ईमानदारी से अपना काम अंजाम दिया। इसी का नतीजा है कि लाखों लोगों के शहर मे आने के बाद भी न तो यातायात बाधित हुआ और न कोई अनहोनी ही हुई।निश्चय ही इसका श्रेय प्रशासन और पुलिस को जाता है। साथ ही इज़्तिमा की इंतजामिया कमेटी के हजारों वालंटियरों ने भी दिनरात एक कर सरकार की खूब मदद की। इंतजामिया कमेटी ने मध्यप्रदेश सरकार और खासकर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के योगदान को हाथों हाथ लिया है।कमेटी के प्रवक्ता श्री अतीकुल इस्लाम ने कमेटी की तरफ से मुख्यमंत्री का तहेदिल से शुक्रिया अदा किया है। बेरसिया रोड स्थित घासीपुरा मे आयोजित इज़्तिमा मे तीनो दिन मजहबी तक़रीरें हुईं और एक दिन सामूहिक निकाह का आयोजन भी किया गया। इसमे करीब 500 जोड़ों की शादियाँ बेहद सादगी से कराई गईं। समापन के दिन दुनिया से दहशत मिटाने और अमन की कायमी के लिए लाखों हाथ दुआ के लिए उठे।इज्तिमा के लिए जमातों के आने का सिलसिला कई दिन पहले शुरू हो गया था। देश के सभी भागों के अलावा इन्डोनेशिया, मलेशिया,चीन,रूस,श्रीलंका और किरकिस्तान से भी जमाते इज्तिमा मे शिरकत करने आईं थी। इज्तिमा मे शिरकत करने वालों का सैलाब चार-पाँच दिन तक भोपाल मे हर तरफ नजर आता रहा। भोपाल मे इज्तिमा का आगाज 67 साल पहले ताजुल मसाजिद मे गिने-चुने लोगों की मौजूदगी मे हुआ था। इस बार इसमे आठ लाख लोगों के शिरकत करने की बात कही गई है। यह भारत का सबसे बड़ा और दुनिया का तीसरे नंबर का इज्तिमा होना माना जाता है। पाकिस्तान और बांगलादेश मे भी इज़्तिमे लगाए जाते हैं। इस बार के इज्तिमा मे एक खास आमद बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मोतीहारी मे रहने वाले जनाब मोहम्मद सईदुल्लाह बिहारी की भी रही। ताज्जुब यह कि इसके लिए 75 बरस के जनाब सईदुल्लाह पूरे 14 दिन साइकिल पर सफर कर भोपाल पहुंचे।दिलचस्प यह कि यह साइकल भी खुद उन्ही की बनाई हुई है।उन्हे तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे कलाम सम्मानित भी कर चुके हैं। जनाब सईदुल्लाह इज्तिमा के कई रोज पहले भोपाल आ गए थे और यहाँ के इंतजामात मे उन्होने खूब हाथ बटाया।
भारतीय प्रशासनिक सेवा मे 1956 मे आए गणितज्ञ ब्रह्मदेव शर्मा ने रिटायर होने के बाद भले बस्तर को अपनी कर्मभूमि बना लिया पर थे वे मध्यप्रदेश केडर के अधिकारी। अपना आखिरी वक्त उन्होने ग्वालियर मे बिताया और वहीं अंतिम सांस भी ली।इसके बावजूद उनके निधन पर मध्यप्रदेश के राजनैतिक और प्रशासनिक हल्कों और मीडिया की चुप्पी एहसानफरामोशी की इंतिहा है।बस्तर में आदिवासियों की मर्जी के खिलाफ जब भाजपा सरकार नें १९९२ में लौह कारखाना लगाने की कोशिश की तो ब्रह्मदेव शर्मा नें आदिवासियों का साथ दिया । इससे चिढ कर भाजपा के लोगों नें जगदलपुर में उन पर हमला किया, कपड़े फाड़ दिए और गले में जूतों का हार डाल कर जुलूस निकाला । इसके बाद उन्होने नें बस्तर जाना लगभग बंद कर दिया था। राज्यपाल और मुख्यमंत्री पता नहीं कैसे-कैसे महत्वहीन और अनजाने लोगों के मरने पर दुखी होकर अपना संवेदना संदेश जारी करने मे देर नहीं करते हैं। लेकिन मानवता और आदिवासियों के लिए तन-मन-धन से समर्पित ब्रह्मदत्त शर्मा के लिए दो लाइन का श्रद्धांजलि संदेश देने की उन्हे फुर्सत नहीं मिली..! भव्य अरेरा क्लब मे बिराजने वाले आईएएस अफसरों की एसोसिएशन ने अपनी बिरादरी के बिरले सदस्य की स्मृति मे कोई शोकसभा की, इसकी भी खबर नहीं है। और तो और दैनिक भास्कर,भोपाल ने उनकी याद मे लेख छापना तो दूर निधन पर चार लाइन की खबर तक छापने की जरूरत नहीं समझी,यही हाल कमोबेश अन्य अखबारो का रहा।जब नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ मे 2012 मे एक कलक्टर को अगवा कर लिया तब सरकार के कहने पर डॉक्टर ब्रह्मदेव ने उन्हे मुक्त कराया था। बस्तर गोलीकांड के बाद,जिसमे तत्कालीन पूर्व राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव सहित कई आदिवासी मारे गए थे, ब्रह्मदेव बस्तर के कलक्टर बनाए गए थे। डॉक्टर ब्रह्मदेव ने तब बैलाडीला मे करीब 300 आदिवासी लड़कियों की उन गैर जनजातीय पुरुषों से करवा दी थी जो उनका दैहिक शोषण किया करते थे। निरीक्षण के दौरान उन्हें पता चला कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी के नाम पर कई भोली-भाली आदिवासी युवतियों का दैहिक शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया.इनमे कई युवतियां गर्भवती हो गई। तब डॉक्टर ब्रह्मदेव ने यौन संबंध बनाने वाले लोगों,जिनमें वरिष्ठ अधिकारी भी थे,से दो टूक कहाकि या तो युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ. जाहिर है कलेक्टर के सख्त तेवर देख सबको शादी के लिए तैयार होना पड़ा इस घटना और बस्तर में रहते हुए डॉक्टर ब्रह्मदेव का आदिवासियों से गहरा लगाव हो गया और आदिवासी भी उन्हे अपना समझने लगे। .इसके बाद ब्रह्मदेव शर्मा ने आदिवासी जीवन, उनकी संस्कृति , अर्थव्यवस्था को बहुत गहराई से समझा। सरकार नें बस्तर में कमाई के लिए प्राकृतिक जंगल समाप्त कर के चीड के रोपण का प्लान बनाया तो कलेक्टर शर्मा नें उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया और कहा कि जंगल आदिवासी का जीवन है उसे सरकार के मुनाफे के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। बाद में उन्हे भारत का आदिवासी आयुक्त बनाया गया। वे पूर्वोत्तर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे इसके बाद वे आदिवासी मामलों के सबसे मुखर योद्धा के रूप में उभरे॰ बस्तर में जनजातीय इलाके में विश्व बैंक से मिले 200 करोड़ रुपये की लागत से 15 कारखाने लगाए जाने की योजना लाई. जिसका डॉक्टर ब्रह्मदेव ने खुलकर विरोध किया. उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इससे सालों से उन इलाकों में रह रहे जनजातीय लोग दूसरे क्षेत्र में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो सही नहीं है. लेकिन सरकार उनसे सहमत नहीं हुई. आखिर1980 में उन्होंने इस्तीफा देकर खुद को नौकरशाही से आजाद कर लिया और आदिवासियों की बेहतरी के लिए काम करने लगे. आदिवासियों के लिए इतना संघर्ष और उनके लिए लगातार काम करते रहने ने ही डॉक्टर ब्रह्मदेव को आदिवासियों का मसीहा बना दिया.
मदद ,बोहरा समाज ने सबको दिखाया रास्ता जब भी कोई बड़ा जुर्म होता है, बड़ी सड़क दुर्घटना होती है तो गुस्साए लोग चक्का जाम कर देते हैं और सारा ठीकरा पुलिस के मत्थे फोड़ देते हैं। कोई आतंकी घटना होती है या राजनैतिक रैलियों और धार्मिक आयोजनो से आम आदमी का चलना-फिरना हराम हो जाता है तब भी पुलिस की खिंचाई शुरू हो जाती है पर हमारा ध्यान इस तरफ कम ही जाता है कि पुलिस किन हालात मे काम करती है। श्री बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री रह चुके हैं और दूसरी या तीसरी बार गृह मंत्री बने हैं।वे बरसों से पुलिसजनों की साप्ताहिक छुट्टी की वकालत करते रहे हैं पर हुआ-गया कुछ नहीं। पुलिस का ज़्यादा वक्त बीतता है राजनैतिक पार्टियों के धरना-प्रदर्शन और चक्काजाम, मंतरी-संतरी के उदघाटन-शिलान्यास और वीआईपी सुरक्षामे। इसके बाद नंबर आता है धार्मिक संगठनों के जलसा-जुलूस आदि के प्रबंधन मे। जरा गौर करें कि गणपति स्थापना और विसर्जन, दुर्गा स्थापना और विसर्जन, काँवड़यात्रा, परशुराम जयंती,महावीर जयंती, बुद्ध जयंती, रविदास जयंती ,वाल्मीकि जयंती गुरु नानक जयंती,अंबेडकर जयंती, अग्रसेन जयंती, मोहर्रम जुलूस और माता की चुनरी जैसे जलसा जुलूसों के प्रबंधन मे पुलिस और प्रशासन को कितनी मारा मारी करनी पड़ती है। !इन बेगारों की वजह से उसे कानून व्यवस्था पर नियंत्रण और अपराधों की पड़ताल जैसे कामो के लिए समय ही नहीं मिल पाताजिसके लिए उसे बनाया गया है। दाऊदी बोहरा समाज ने बिना पुलिस मदद के धार्मिक जलसा जुलूस का प्रबंध कर अनूठी मिसाल पेश की है। डीबी स्टार की खबर के मुताबिक समाज ने अपने धर्मगुरु सैयदना साहब के भोपाल आगमन से लेकर उनकी बिदाई और आयोजनो के सारे सूत्र खुद संभाल अन्य धार्मिक संगठनों के लिए मिसाल पेश की है। समाज ने सैयदना साहब की सुरक्षा से लेकर साफ-सफाई, खानपान और निमंत्रण देने का काम खुद किया और सरकार से कोई मदद नहीं ली। समाज के अपने सुरक्षा गार्ड हर जगह तैनात रहे और सैयदना साहब के वाहन की पायलेटिंग की जवाबदारी बुरहानी गार्ड कर रहे थे। इसके लिए देश भर से 320 गार्ड भोपाल आए थे।ये सभी तकनीकी संसाधनो से लैस थे और वाकी-टाकी से जुड़े थे। सड़क, नाली आदि की साफ-सफाई की ज़िम्मेदारी सूरत और अहमदाबाद से आए लोगों ने संभाल रखी थी।भोपाल प्रवास के दौरान सैयदना मुफ़्दद्दल सैफुद्दीन साहब शहर समाज के करीब दस घरों मे गए। एयरपोर्ट रोड स्थित पंचवटी कालोनी मे भी उनके दीदार करने बहुत से लोग पहुंचे।यहाँ उन्होने समाज के बीस जोड़ों का निकाह पढ़वाया। इसके बरक्स अन्य धार्मिक संगठनों द्वारा छोटे-बड़े हर आयोजनो के लिए पुलिस सुरक्षा मांगी जाती है। साफ-सफाई ,पेयजल आपूर्ति और अन्य प्रबंध भी सरकार के जिम्मे रहते हैं।अब समय आ गया है कि सरकार इस प्रकार की मुफ्त बेगार से हाथ खींचे और ऐसे कामों के एवज मे तगड़ी रकम वसूल करे जिससे पुलिसजनो और अन्य सरकारी अमले को अतिरिक्त ड्यूटी का भरपूर पैसा मिले।
के 15/09/2017 के फैसले का हवाला देते हुए इंक्रीमेंट देने का आदेश दिया.साल-२३ में सुप्रीमकोर्ट ने भी फैसला सुनाया की 30 जून को रिटायर होने पर साल भर काम के
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